मनोज कुमार या भारत कुमार इनमें देशभक्ति को लेकर फिल्में बनाने का एक जुनून सा छाया हुआ था।
आज हम आपको इस महान कलाकार मनोज कुमार की जिंदगी के बारे में जानकारियां देंगे। बंटवारे का दर्द लेकर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आए, कैसे फिल्म इंडस्ट्री तक पहुंचे और उनका फिल्मी सफर कैसा रहा यह सारी कहानियां हम और आप जानेंगे। मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को ब्रिटिश इंडिया के हिस्से रहे पाकिस्तान एबटाबाद में हुआ था। इनका ओरिजिनल नाम हरिकिशन गोस्वामी है। हालांकि इनका बचपन का ज्यादा समय लाहौर में ही बीता, लाहौर से पहले यह कुछ समय अपने पुश्तैनी गांव जंडियाला शेरखान में रहे। जो कि शेखुपुरा जिले में मौजूद है। आज के दौर में यह पाकिस्तान में है। जंडियाला शेर खान का जो इलाका है इनका पुश्तैनी गांव रहा है। उसी गांव में वारिस शाह सूफी कवि भी जन्मे थे। मनोज कुमार की उम्र मात्र 10 साल की ही थी जब भारत का विभाजन हो गया था और इनके माता-पिता अपना सब कुछ छोड़ कर पाकिस्तान से भारत आ गए।
मुश्किलों से गुजरते हुए किसी तरह इनके परिवार दिल्ली के किंग्जवे रिफ्यूजी कैंप में आकर बस गया और इनका काफी वक्त यही बीता। रिफ्यूजी कैंप में रहने के दौरान इनकी मां और इनका एक छोटा भाई बीमार रहने लगे। मां को भाई को इलाज के लिए तीस हजारी हॉस्पिटल ले गए। लेकिन उस दौर में भी दिल्ली दंगों की आग से झुलस रही थी। जैसे ही दंगे अस्पताल में मौजूद सभी लोग डर के मारे बेसमेंट में छिप जाते थे। जब यह हॉस्पिटल की बेसमेंट में छिपे थे तो इनके भाई की तबीयत खराब हो गई। मनोज कुमार ने डॉक्टरों से काफी गुहार की कि उनके भाई को बचा ले लेकिन डॉक्टर इनके भाई को देखने नहीं आए। 2 साल के इनके छोटे भाई ने आखिरकार दम तोड़ दिया। भाई की इस तरह से हुई मौत से मनोज कुमार बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने एक लाठी उठाई। किसी तरह बेसमेंट में घुस गए। इन्होंने वहां बेसमेंट में छिपे हर डॉक्टर और नर्स की पिटाई कर दी। लेकिन जब इनके पिता को इस घटना का पता चला तो उन्होंने मनोज कुमार को बहुत डांटा और इनसे कसम ली कि भविष्य में कभी भी किसी के ऊपर हाथ नहीं उठाओगे। पिता की दिए हुए इस कसम का असर उन पर बहुत रहा। उस घटना के बाद मनोज कुमार ने किसी को एक थप्पड़ तक नहीं मारा।
रिफ्यूजी कैंप में रहने वाले मनोज कुमार फिल्मों में कैसे आए यह भी एक बड़ी दिलचस्प घटना है। दरअसल एक दफा इनके रिफ्यूजी कैंप में दिलीप कुमार की फिल्म जुगनू दिखाई गई। उस फिल्म में दिलीप साहब की पर्सनैलिटी से मनोज कुमार बेहद प्रभावित हुए। उस वक्त मनोज कुमार की उम्र मात्र 12 साल की थी। दिलीप कुमार की फिल्म को देख मनोज कुमार उनके दीवाने हो गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने दिलीप कुमार की एक और फिल्म देखी जिसका नाम था शहीद, जिसमें फिल्म के आखिर में दिलीप कुमार की मौत हो जाती है तो वही छोटे मनोज कुमार को इस बात की समझ में नहीं आती आखिर कि कैसे कोई दो बार मर सकता है। मनोज कुमार इसी सोच में गुम शुभ रहने लगे ,इन्होंने अपनी मां से पूछा कि एक आदमी कितनी बार मर सकता है, मां ने जवाब दिया एक बार तो मनोज कुमार ने पूछा कि अगर कोई इंसान दो तीन बार मरे तो मां ने कहा कि वह इंसान नहीं फरिश्ता होता है। मनोज कुमार ने तभी फैसला किया कि आगे चलकर फरिश्ता बनेंगे।
वक्त गुजरता गया और दिल्ली में रिफ्यूजी कैंप में रहने के दौरान मनोज कुमार क्रिकेट केअच्छे खिलाड़ी भी बन गए थे। इन्हें उसी समय एक युवती से मोहब्बत भी हो गई। आगे चलकर इनकी शादी उसी युवती से हो गई थी। कुछ समय बाद मनोज कुमार की मुलाकात उन के एक रिश्तेदार लेखराज भाखडी से हुई। वह एक नामी डायरेक्टर थे। वह अपनी किसी फिल्म के सिलसिले में मुंबई से दिल्ली आए हुए थे। मनोज कुमार को देखते ही लेखराज भाखडी बोले तुम तो हीरो जैसे दिखते हो। बचपन से ही हीरो का ख्वाब देखने वाले मनोज कुमार ने उनको जवाब दिया अगर आपको ऐसा लगता है तो मुझे हीरो बना ही दीजिए /लेखराज भाखडी ने उन्हें कहा समय निकालकर मुंबई आओ फिर तुम्हारे बारे में कुछ सोचा जाएगा। लेखराज भाखडी के बुलावे पर दिल्ली से मुंबई जाने का फैसला कर लिया।
अपने माता पिता से इजाजत लेकर मनोज कुमार सन 1956 में मुंबई के लिए रवाना हो गए।
मुंबई आने के बाद तब शुरू हुआ वह संघर्ष जिस की आग में तप कर एक आम इंसान सोना बनता है। मनोज कुमार के कई भाई थे जो फिल्म इंडस्ट्री में थे। लेकिन लेखराज भाखडी ने इनको कह दिया था कि फिल्मों में काम करने के लिए पहले बहुत ज्यादा घिसना होगा। मनोज कुमार किसी तरह अपना गुजारा मुंबई में करने लगे। मनोज कुमार एक लेखक भी थे वह कई फिल्मों के लिए उन्होंने कहानियां लिखी। उनकी कुछ कहानियों पर फिल्में भी बनी। लेकिन उनको उनकी कहानियों पर कोई क्रेडिट नहीं मिला। हालांकि कहानी के बदले इनको पैसे जरूर मिले। उन्हीं पैसों से मुंबई में इनका खर्च चल रहा था।
फिर साल 1957 में उनके कजन लेखराज भाखडी ने फिल्म फैशन बनाई। फिल्म में पहली बार मनोज कुमार को एक्टिंग करने का मौका दिया गया। 20 साल के मनोज कुमार को उस फिल्म में एक सीन दिया गया था उस एक सीन में भी उनको 90 साल के एक भिखारी का रोल दिया गया था। बुरी तरह नर्वस हो रहे मनोज कुमार ने किसी तरह वह रोल निभा लिया। इसके बाद मनोज कुमार ने फिल्म सहारा,चांद जैसी फिल्मों में भी छोटे-मोटे रोल किए। आखिरकार सन 1961 में आई फिल्म `कांच की चूड़ियां `यह पहली दफा बतौर हीरो नजर आए। इनकी पहली हीरोइन थी शाहिदा खान। हालांकि यह फिल्म चल नहीं पाई इसके बाद आई सुहाग सिंदूर, पिया मिलन की आस और रेशमी रुमाल नाम की फिल्म में भी यह हीरो बने थे। यह फिल्में भी फ्लॉप साबित हुई। साल 1962 में आई फिल्म `हरियाली और रास्ता` ने इनकी किस्मत को पूरी तरह से बदल डाला। यह इनकी पहली सफल फिल्म रही। इसके बाद मनोज कुमार ने एक से बढ़कर एक कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया। `डॉक्टर विद्या` `शादी` `बनारसी ठग` `घर बसाके देखो``वह कौन थी``अपने हुए पराए`` शहीद``गुमनाम`` दो बदन` `पत्थर के सनम` उनकी कुछ फिल्में लगातार सुपरहिट होती जा रही थी। 1967 में फिल्म आई `उपकार ` जिसने मनोज कुमार को भारत कुमार बना दिया। इस फिल्म में मनोज कुमार के किरदार का नाम भारत कुमार था। इस फिल्म को खुद मनोज कुमार ने ही डायरेक्ट किया था। मनोज कुमार ने यह सोच कर अपने किरदार का नाम भारत इसीलिए की असली भारत तो गांव में ही बसता है और उनकी फिल्म उपकार गांव की एक कहानी है। उपकार जबरदस्त हिट रही.इस सफलता ने मनोज कुमार को लोकप्रियता के शिखर पर ला खड़ा कर दिया। लोगों ने मनोज कुमार की जगह भारत कुमार से ही जानने लगे। इनकी आगे भी जो फिल्में आई ज्यादातर उन में इनका नाम भारत कुमार ही रहा। उसके बाद मनोज कुमार ने ऐसी फिल्में भी साइन करनी बंद कर दी जिसमें हीरोइन के नजदीक जाना हो। उन्होंने फिर अपनी फिल्मों में कभी भी हीरोइन को हाथ तक नहीं लगाया।
मनोज कुमार की निजी जिंदगी के बारे में बात करते हैं। इनकी शादी उनकी प्रेमिका शशि से हुई थी। शशि से इनके दो बेटे हुए विशाल और कुणाल। जहां इनके बेटे विशाल ने प्लेबैक में अपना कैरियर खोजने की कोशिश की वहीं इनके बेटे कुणाल ने एक्टिंग में खुद को आजमाया। अफसोस की बात यह रही इनके दोनों बेटे अपने पिता के मुकाम के आसपास भी नहीं पहुंच सके। इनके छोटे भाई राजीव गोस्वामी ने भी उनके नक्शे कदम पर चलने की कोशिश की। फिल्म इंडस्ट्री में अपना मुकाम बनाने की कोशिश की लेकिन उन्हें भी कामयाबी नहीं मिली।
मनोज कुमार को मिले अवॉर्ड्स का जिक्र करे तो फिल्म उपकार के लिए फिल्म फेयर अवार्ड मिला /इस फिल्म के लिए उनको बेस्ट एक्टर का अवार्ड नहीं मिला था। फिल्म `बेईमान`के लिए बेस्ट एक्टर का अवार्ड से नवाजा गया था। फिल्म `शोर` के लिए इन्हें फिल्म फेयर बेस्ट एक्टिंग अवार्ड दिया गया। ` रोटी कपड़ा और मकान `के लिए इन्हें एक बार फिल्म फेयर में बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड मिला। सन 1999 में मनोज कुमार को फिल्म फेयर ने मनोज कुमार को लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड दिया गया। साल 2016 में फिल्म इंडस्ट्री ने उनके योगदान के लिए दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया। साल 1992 में भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। मनोज कुमार की उम्र इस समय 84 वर्ष की हो चुकी है। वह आजकल फिल्मों में काम तो नहीं कर रहे। मनोज कुमार जैसा कलाकार दुनिया में बहुत कम पैदा होते हैं।
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