Film Review kashmir files ज्ञान का भंडार है। परमाणो के आधार पर दिखाया।लेफ्ट माइंड सेट की धज्जियां उडाता

  REVIEW;KASHMIR FILE ज्ञान का भंडार है। परमाणो  के आधार पर दिखाया। हर सवाल का जवाब दिया गया



जिस कहानी को हम पर्दे पर नहीं देख पा रहे हैं उनको रियल में लोगों ने कैसे सहा होगा। हिंदी सिनेमा में शायद ही किसी रियल इंसीडेंट को इतना ऑथेंटिक तरीके से और परमाणो  के आधार पर दिखाया होगा यह शायद याद नहीं। जिसके बारे में सोचने के लिए आज भी लोग कांप जाते हैं। जिसकीचीखें आज भी अंदर तक झकझोर जाती है लेकिन क्या यह दर्द देश का हर इंसान महसूस करता है?यहां ज्यादातर लोग इसे एक किस्से  की तरह ही जानते हैं। इसी तरह बहुत से सवाल भी खड़ी करती है यह फिल्म और सबसे लॉजिकल जवाब भी देती है फिल्म `कश्मीर फाइल फिल्म`. फिल्म में एक से एक धुरंधर कलाकार हैं और उनकी एक्टिंग का जो लेवल है वह दर्शकों को रुलाने के लिए मजबूर कर देता है और उस सत्य के नजदीक ले जाता है। यह फिल्म उस सोच को बाहर लाने का कार्य करती है जो अभी तक किसी ने नहीं किया। फिल्म की कहानी दो समय में चलती है।  एक आज के समय में 30 साल का डिफरेंस को एक दूसरे से कनेक्ट करके आज के समय में। यह पीरियड ड्रामा फिल्म नहीं है ना इसको हम ऐतिहासिक फिल्म कह सकते हैं अगर यह फिल्म ना बनती तो शायद यह दुर्घटना इतिहास के पन्नों में कहीं खो जाती। 30 साल की



घटनाएं, आतंकवाद, राष्ट्रवाद,माइंड वाश, विक्टिम और एक खूंखार बातें उस लेफ़्टिस्ट के विचारों को सामने लाती है।  जिस में मानवता बाहर से तो समाज के भले के लिए काम करती हैं लेकिन अंदर से यह क्रांति देश को खत्म करने के लिए होती है। इस फिल्म का जो बड़ा हीरो है वह इस फिल्म की रिसर्च टीम। टीम ने किस तरह से गहराई में जाकर इसकी रिसर्च की है। फिल्म का एक-एक सीन फेक्ट  और प्रूफ के साथ दिखाया गया है। किसी पर  उंगली नहीं उठाई जा सकती के नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब कुछ सबूतों के साथ ही दिखाया गया है। टेक्निकल पार्ट की बात करें तो फिल्म की शुरुआत एक कमेंट्री से शुरू होती है पास में खेल रहे बच्चों पर जो क्रिकेट खेल रहे हैं जो एक शॉट रहा होगा और बहुत ही मुश्किल शार्ट रहा होगा। कैमरा रेडियो से सीधे बच्चों पर और कमेंट्री से हिसाब से बच्चों के ऊपर चल रहा था। बच्चे ने जब कवरड्राइव मारा तो कमेंट्री में भी आवाज आ रही थी कि सचिन ने ड्राइव किया यानी के रेडियो और सीन का बहुत अच्छा एक मिश्रण किया गया है। 
फिल्म का सबसे बेहतरीन सीन है जहां खून से सने हुए चावल दिखाए गए हैं। यह एक बेहतरीन ड्रैमेटिकल और इमोशनल सीन है। जिसमें बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए बहुत से ऑप्शन थे लेकिन डायरेक्टर ने इसे बिना म्यूजिक ही रहने दिया। यह एक पिन ड्रॉप साइलेंस ही चुना गया।सीन  में कोई म्यूजिक ही नहीं रखा गया। शायद इसीलिए यह सीन बनावटी नहीं रियल लगा। डायरेक्टर ने इस घटना को लेकर लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि वह इसके बारे में क्या सोचते हैं यह लोगों पर ही छोड़ दिया। दर्द, गुस्सा और आंसूl फिल्ममें  बैलेंस रखा हुआ है कि एक तरफा नहीं लगती। सभी पक्षों को इस में अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया गया है या यूं कह लीजिए कि विरोधियों को पूरा मौका दिया गया है। टीवी चैनल या सोशल मीडिया पर जो सवाल कम्युनिस्ट और लेफ़्टिस्ट सवाल उठाते हैं उसका पूरा जवाब दिया गया है। जिन बातों को वह बोलते हैं उन बातों को पल्लवी जोशी द्वारा बुलवाया गया है और इसके बाद लॉजिकल तरीके से उसके सवालों का जवाब भी दिया जाता है। 
       यह मात्र एक कहानी नहीं है। इसमें ज्ञान का भंडार है। अगर आप कश्मीरी पंडितों से इत्तेफाक नहीं रखते तो फिर भी कश्मीर के बारे में जानने के लिए इसमें बहुत कुछ है ,इसके इतिहास को देखने के लिए देखी जानी चाहिए ,इसमें बहुत रिसर्च वर्क किया गया है।  कहानी आप पर एक पकड़ बनाए रखती है ,पर्दे पर एक के बाद एक ऐसे घटनाएं लोगों को बांध कर रखती हैं कि लोग विवश हो जाते हैं कि ऐसा आगे क्या हुआ था। कश्मीर में जो हमारे सामने कभी लाया ही नहीं गया। 
   एक्टिंग की बात करें तो अनुपम खेर(anupam kher ) ने अपनी पहली फिल्म `सारांश` के बाद सबसे बेहतरीन एक्टिंग की है। अगर इसको हम सारांश का दूसरा पार्ट कहे तो यह गलत नहीं होगा। यह उनका अब तक का बेस्ट परफॉर्मेंस रहा होगा। मिथुन चक्रवर्ती एक ऐसा करैक्टर है जिसके हाथ बंधे होते हैं ,फिल्म में उनका बहुत ही स्थिर किरदार है। पल्लवी जोशी ने जेएनय के एक प्रोफेसर की भूमिका में उन्होंने इसको बहुत बारीकी से समझा है। उस पर रिसर्च किया है ,उसके बाद ही उन्होंने ना केवल अपनी एक्सप्रेशन से उस लेफ़्टिस्ट प्रोफेसर को अंदर उतारा है बल्कि अगर आप उसकी आतंकवादी के साथ फोटो देखें वह फोटो भी आपको रियल लगेगी ,क्या है ना इस तरह की साड़ी पहनने वाली और माथे पर मोटी सी बिंदी लगाने वाली जो होती है उनका एक अलग स्टाइल होता है। उनकी एक अलग सोच होती है जो उनकी दिन की दिनचर्या में होती है ,शायद वह जानबूझकर इस तरह की एकआईडेंटिटी बना कर रखती हैं ताकि लोग उनकी इस आईडेंटिटी को पहचान कर रखें और उनको लगेगी यह वह लोग हैं ,फिल्म में लेफ़्टिस्ट का किरदार बहुत रियल  लगता है ,एक और कलाकार दर्शन कुमार एक ऐसा एक्टर जिसमें फिल्म में जान डाल दी। उनके पास काफी कुछ था यहां दिखाने के लिए।  सच और झूठ के बीच में पिस्ता हुआ एक छात्र जो एक ऐसा आदमी है जिसे जो सिखा दिया जाए वह करना शुरू कर देता है। लेकिन जब असल सच्चाई उसके सामने आती है तो उसकी लेफ्ट माइंड सेट की धज्जियां उड़ जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स दर्शन कुमार के नाम ही रहता है ,फारुख मलिक बिट्टा के किरदार में जाने का श्रेय मिलता है चिन्मय मंडलेकर को।चिन्मय अपने किरदार को वह रूप देने में सफल रहे हैं जिससे लोगों को उससे घृणा हो जाती है। उनका प्रशंसनीय काम फिल्म में देखने को मिलता है। कुछ बेहतरीन डायलॉग फिल्म को और वजनदार बना देते हैं। जैसे झूठी खबर को दिखाना इतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना सच्ची खबर को छुपाना।  एक जगह एक बात सुनने को मिलती है छोड़ो पुरानी बातों को सॉरी एंड मूव ऑन। अक्सर आतंकियों को सपोर्ट देने वाले यह दलील देते हैं कि यह बच्चे थे और सिस्टम के मारे सताए हुए बंदूक नहीं उठाएंगे तो और क्या करेंगे। इस फिल्म में भी यह बताया गया है और साथ में इसका जवाब भी दिया गया है। पंडितों पर तो कितने जुल्म हुए उन्होंने तो बंदूक नहीं उठाई। यहां हर सवाल का जवाब दिया गया है। अगर आप टुकड़े गैंग से भी हैं तो आपको यह नहीं लगेगा कि हमारी बात को छोटा कर दिया गया है। हमारी दलीलों  को नहीं बताया गया। यह फिल्म कश्मीर में हिंदू पंडितों की जुल्म की कहानी है। डायरेक्शन की बात करें तो यह फिल्म एक डायरेक्टर की फिल्म लगती है। जहां हर डिपार्टमेंट में विवेक अग्निहोत्री का दखल दिखाई दे रहा है। रिसर्च टीम से लेकर एक्टिंग तक हर जगह उनका फ्लेवर दिखाई देता है। उनका बेहतरीन काम ही है कि यह फिल्म सीधा दर्शकों के दिल को कनेक्ट करती है।  जो वाकई में उस वक्त के सताए हुए लोग हैं वह तो शायद इस फिल्म को देखकर नतमस्तक ही हो जाए।  फिल्म कि IMD रेटिंग 10 में से 10 है। 

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